सपाटू में पतंगबाजी

जोत्यिश , 3168

- मदन गुप्ता सपाटू,.मो-9815619620

        वैसे तो पूरे विश्व में विशेषतः भारत में मकर संक्रान्ति तथा वसंत पंचमी पर धार्मिक, सांस्कृतिक सामाजिक,  ओैर मनोरंजन या खेल की दृष्टि से पतंग उड़ाना एक शगुन माना जाता है परंतु अपने बचपन में की गई पतंगबाजी की एक अविस्मरणीय यादें होती हैं, शायद आपकी भी जरुर होंगी और मेरा संस्मरण पढ़ने से जरुर ताजा हो जाएंगी
      सपाटू के स्कूलों में उन दिनों दिसंबर से जनवरी के अंत तक सर्दियों की छुटिट्यां होती थीं जिसे हम एक टाइटल के तौर पर ‘दो महीने की छुटिट्यां ’ बोला करते थे । बाद में यह  अवकाश 15 दिसंबर से 15 फरवरी तक कर दिया गया। हमारे बचपन के समय में सपाटू में अक्सर इन दिनों बर्फ पड़ जाती है।  
    सर्दियों में धूप में बैठ कर, कलम दवात, होल्डर जिसे हम डंक भी कहते थे, तख्ती, काली स्याही, गजनी, लाल- नीली - हरी इंक की टिक्कियां पानी में घोल कर स्याही बनाते,कलम घड़ते, जी, आई और जैड के निब होल्डरों में फंसाते,  किताबें कापियां तख्तियां लेकर बैठते और दो महीने का होमवर्क 15 दिन में ही निपटा लेते।
      बस फिर पूरा डेढ़ महीना, पिट्ठू, गुल्ली डंडा, कन्ंचे, अखरोट, रीठे की काली गोलियां, लुक्कन छिप्पी, काट कटउव्वा, तार से टायर चलाने, पतंग उड़ाने , बनफशा इकटठा करने, दाड़़ू छीलने, अनारदाना निकालने, चीनी व नमक के साथ चकोतरे खाने में कैसे बीत जाता, पता ही नहीं चलता। सर्दियों के दिनांे में अक्सर लोग दुकानें बंद करके मैदान की यात्राओं पर निकल जाते। हमने भी 1960 में ऐसे दिनों में दिल्ली, इलाहाबाद की खूब सैर की। मकर संक्राति पर प्रयाग में नहाए।
      छोटे मोटे खेलों में , जो मजा पतंग उड़ाने में आता, वो कहीं नहीं आता। हमारी दूकान पर ही रंग बिरंगे पतंगी कागज और डोर बिकती थी। कांच का सामान बांस से बने खांचों में आता था जिसकी खप्पचियां हम सारा साल संभाल कर रखते और सर्दियों में उससे पतंग बनाते। हमारे सपाटू में , सिखणू जी एक बुजुर्ग थे जो रामलीला पर  रावण बनाते थे। इसके अलावा वे बांस से टोकरी और किल्टे भी बनाते। इसलिए पतंग के लिए कान्ने यानी बांस की पतली धज्जियां उनसे फ्री में मिल जाती।
      कसौली से मेरा कजन अमरचंद आ जाता और हम खूब पतंगें उड़ाते। सपाटू में उन दिनों कोई बेकरी नहीं थी। धर्मपुर या कसौली से ही बहत बढ़िया बंद ,रस, केक, डबलरोटी आती। हमारी बुआ, कसौली से हमारे लिए कनस्तरों में बिस्कुट ले आते और सपाटू मेें हमारे घर में 4 किस्म की पिन्नियां बना कर कनस्तरों में भर दी जाती। हल्दी, आटे, मैदे और अलसीे की पिन्नियां। बाजार के हलवाई गाजर पाक और अलसी की खास तौर पर पिन्नियां बनाते।आज भी बनाते हैं।
       पतंगों की अलग अलग किस्में थी। मुझे गुडड्ी पसंद थी क्योंकि उसकी शेप कुछ अलग होने से और लम्बी पूंछ होने से  वह आसमान में एक दम उड़ जाती। ज्यादातर हम अपनी छत से ही पतंगें रोज उड़ाते , रोज कटवाते और रोज बनाते। पतंगों का सामान दुकान पर ही था। और हमारे बाबू जी ने हमें इस मामले मंे खुली छूट दे रखी थी। हमारी पतंगे, कशमीरी मोहल्ले से पतंग उड़ाने वाले अक्सर काट देते। मेरी पसंद जामुनी रंग की लंबी पूंछ वाली गुडडी पतंग थी जो खूब लहराती हुई आसमान छूती दिखाई देती।
       मेरे कसौली वाले कजन ने अपना अनुभव बताते हुए एक तरकीब सुझाई जो हमने घर में किसी को बिना बताए अपनाई। हमने बाबू हरी राम लोहे वालों की दुकान से सरेश जो एक डली होता था, उसे खरीदा। आग पर पिघलाया। कांच तोड़ कर उसे बारीक करके सरेश में मिलाया और सारी डोर पर लगाया।डोर एक दम कड़क हो गई। फिर पतंग उड़ाया। तीखे कांच के कारण कशमीरी मोहल्ले की पतंगें हमने खूब काटी। उधर से आवाजें आती- वो काटा...वो काटा...ढील दे...... छोड़ दे..... फिर दुरगाई दे। एक दिन कोई मोटा कांच, डोर से हमारे हाथों में लग गया जिससे घाव हो गए। हम सरसों का तेल लगा कर दस्तानों से उसे एक हफता छुपाए रहे और फिर पतंग उड़ाने लग गए। पतंग की ऊंची उड़ान के लिए अक्सर बूचड़ खाने की टिब्बी पर जाते या फिर देलगी रोड के ठड्डे पर। वहां हवा बहुत तेज होती और हमारी पतंग बहुत ऊंची उठान लेकर ,दूर तक उड़़ती जिसे देख कर मन में अजीब सी  झूरझुरी उठती। कई बार हवा का रुख बदलने से या दबाव कम होने से पतंग एक दम खडड् या खाई में ही गिर जाती और हम डोरी इकटठी कर के घर लौट आते। नई पतंग बनाते फिर उड़ाते।
       पतंगबाजी का यह सिलसिला खत्म हो गया। फिर मौका मिला चंडीगढ़ में 2020 में, जब हमने थियेटर फॉर थियटर, जिसका मैं अध्यक्ष भी हूं, ने लेज़र वैली में , एक मासिक फेस्टिवल के कार्यक्रम में पतंग उड़ाने की प्रतियोगिता रखी। ये पतंग विशेष मैटीरियल के बने होते हैं और काफी भारी होने के बावजूद एकदम उंचाई पर पहुंच जाते हैं। ये काफी मंहगे होते हैं। आप इन्हें विभिन्न आकारों में  टी.वी पर भी अक्सर देखते होंगे जो आजकल बड़े नगरों में खास खास मौकों पर उड़ाते हैं।
       उम्मीद है आपने पुरानी फिल्म ‘पतंग‘ और कटी पतंग तो देखी ही होगी और ‘चली चली रे पतंग मेरी चली री’..... भी जरुर गाया होगा। राजेन्द्र कुमार की 1960 में आई थी पतंग फिल्म, फिर राजेश खन्ना की कटी पतंग और 1993 में शबाना आजमी की भी पतंग। ऐसे बहुत से फिल्मी और गैर फिल्मी गाने और भी हैं जिनमें उड़ती गिरती, फटती , कटती पतंगों के माध्यम से जीवन के विभिन्न पहलुओं को दर्शाया गया है। पतंग मात्र उड़ाने की चीज ही नहीं अपितु एक संपूर्ण जीवन भी है। तुम्हें याद हो कि न याद हो!
       अहमदाबाद में पतंग फेस्टिवल होता है। पहले कई शहरों में पतंगें बनाने वाले हुआ करते थे। कंप्यूटर और मोबाइल पर गेम्ज आने से बच्चे खुले वातावरण का आनंद नहीं उठा पा रहे।पतंग बनाने वाले एक्सपर्ट भी नहीं रहे। जगह की कमी, पढ़ाई का बोझ, कोरोना का डर! कई नगरों में अब सिल्वर, गोल्डन कलर की पतंगें भी मिल रही हैं। हमारे समय पतंगी कागज में कुछ रंग ही होते थे। अब अमेजन से ऑनलाइन बच्चों को पतंगों का 30 का पैक, डोर  और चरखी सहित मंगवाया जा सकता है।मल्टी कलर,चील ,अडडी ,तवा साइज,गुडडा, गुडडी,अफगानी, बाम्बे हाफ,त्रिवेनी, तिरंगा, पौनी, इंडियन फाईटर आदि पतंगों के नए नाम हैं। डोर प्लास्टिक की आने लगी है जिसके कारण कई दुर्घटनाएं भी हो चुकी हैं। बैटरी से चलने वाली स्पूल यानी हमारे वक्त की चर्खी है जिसमें बटन दबाते ही डोर इक्टठी हो जाती है।  
     हम जब पतंग उड़ाते थे तो एक लड़का तो डोर संभालने की डयूटी निभाता और बारी बारी से पतंग उड़ाते। कट जाती तो लड़ भिड़ कर अपनी घायल पतंग उठा लाते ; लेई या गोंद से  चेप्पी लगा कर फिर उसे उड़ाने की कोशिश करते।
       परंतु पतंगबाजी का जो लुत्फ आपने भी अपने  बचपन में उठाया होगा वह कभी बाद में नहीं मिला होगा। इसी लिए तो कहते हैं- बचपन के दिन भी क्या दिन थे ...

 

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