*पुनर्नवा केवल चिरंजीवी पौधा ही नहीं है, बल्कि समूची प्रकृति है पुनर्नवा*

हेडलाइंस , 3759

कई पौधों के पत्ते, फल, फूल और जड़ों को स्वास्थ्य समस्याओं के इलाज में उपयोग किया जाता है, क्योंकि उनमें औषधीय गुण होते हैं। इन औषधीय गुणों के कारण ये विभिन्न प्रकार की बीमारियों के इलाज में मदद कर सकते हैं। इन्हीं पौधों में से एक पुनर्नवा भी है।  गाँव देहात में उपजने वाली एक औषधि जो जेठ के दिनों में पूरी तरह सूख जाती है, पर बरसात आने पर पुनः खिलखिला उठती है। पुनः पुनः नवीन हो उठने का गुण उसे पुनर्नवा नाम देता है।
   वैसे पुनर्नवा केवल वह चिरंजीवी पौधा ही नहीं है, बल्कि समूची प्रकृति ही पुनर्नवा है। जभी तो हर सूखे के बाद पुनः पुनः खिलखिला उठती है। उसे पेड़ लगाने के राजनैतिक तमाशे की आवश्यकता नहीं, वह स्वयं अपनी आवश्यकता भर का जंगल उपजा लेती है। मनुष्य केवल पेड़ों का निर्दय विनाश रोक दे तो वह सब सम्भाल लेगी। मात्र डेढ़ वर्षों की आंशिक बन्दी में ही उसने संकेत दे दिया कि मनुष्य द्वारा सैकड़ों वर्षों में पहुँचाई गयी हानि को भी वह कुछ वर्षों में ही ठीक कर सकती है।
   पुनर्नवा हैं हम! हमारी संस्कृति, हमारी सभ्यता, हमारा धर्म, हमारा राष्ट्र... एक दो नहीं, असँख्य बार क्रूर नकारात्मक शक्तियों ने हम पर प्रहार किया, पर हम हर बार पुनः उठ खड़े हुए।
    यहाँ यवन आये, लाखों निर्दोष मनुष्यों की हत्या की, लूट मचाई, पर हम दस वर्षों में ही पुनः खड़े हो गए। तुर्क आये, लाखों लोगों को मारा, लाखों को दास बना कर उठा ले गए, मंदिरों और सांस्कृतिक केंद्रों तो तहस नहस कर दिया, पर हम पुनः उठ खड़े हुए। गजनवी, गोरी, खिलजी, तुगलक, लोदी,मुगल, अंग्रेज... हर बार हमने भीषण महाविनाश भोगा, पर फिर-फिर उठ खड़े हुए। हत्या, लूट, बलात्कार, अपहरण, ध्वंस... हर महाविनाश के बाद हमारा स्वरूप तनिक बदल गया, पर न सौंदर्य प्रभावित हुआ न शक्ति... हम सावन की बरसात में नहाए पुनर्नवा के नए हरियल पत्तों की तरह चमकते रहे,मुस्कुराते रहे। संसार में ऐसा अन्य उदाहरण कहीं नहीं मिलेगा...
    पुनर्नवा बार बार हरा हो जाता है क्योंकि भूमि में गड़ी उसकी जड़ नहीं सूखती। हम भी बार-बार इसी कारण उठ जाते हैं क्योंकि हमारी जड़ नहीं सूखती! हमारी जड़ों में है महाराज दिलीप की वह करुणा, जिसने उन्हें एक गाय की रक्षा के लिए सिंह को अपने शरीर का मांस देने की प्रेरणा दी थी। हमारी जड़ों में है भगवान श्रीराम की मर्यादा, जिसने उस युग के सर्वश्रेष्ठ योद्धा को राज त्याग कर चौदह वर्षों तक वन में रहने और वनवासियों की रक्षा करने की शक्ति दी थी। हमारी जड़ों में है महाराज हरिश्चन्द और मोरध्वज का त्याग, हमारी जड़ों में है महाराणा प्रताप, शिवाजी और छत्रसाल का स्वाभिमान... हमारी जड़ों में है द्रोण, कर्ण, दुर्योधन, अश्वथामा जैसे योद्धाओं के बीच में अकेले घुस कर तांडव मचा देने वाले बालक अभिमन्यु का शौर्य... जबतक जड़ों के पास नमी रहेगी, यह पुनर्नवा संस्कृति नहीं सूखेगी। हम हर महाविनाश की अग्निपरीक्षा पार कर के निकल आएंगे।
    किसी भी विपत्ति के उसपार मैं रहूँ न रहूँ, आप रहें न रहें, वह रहे न रहे, 'हम' अवश्य रहेंगे। बस 'मैं' को 'हम' बनाने की आवश्यकता है, फिर विनाश का भय मिट जाएगा, जीतने की शक्ति आ जायेगी... बस स्मरण रहे कि पुनर्नवा हो तुम... तुम भिड़ गए तो तुम्हे कोई पराजित नहीं कर सकता! सभ्यताओं के इतिहास में दशक और सदी छोटी इकाई होती है, सिंधु के तट पर लगभग हजार वर्षों के बाद कभी मराठा लड़ाकों ने भगवा लहराया था, कल कोई और करेगा...

पुनर्नवा का बहुवर्षायु शाक भारतवर्ष में वर्षा ऋतु में सब जगह उत्पन्न होता है। इसकी दो जातियां लाल और सफेद पाई जाती हैं। इनमें रक्त जाति वनस्पति का प्रयोग अधिकता से औषधि के रूप में किया जाता है। इसका कांड पत्र एवं पुष्प सभी रक्त वर्ण के होते हैं। फलों के पक जाने पर वायवीय भाग सूख जाता है, परंतु मूल भूमि में पड़ी रहती है, जो वर्षा ऋतु में फिर से उग आती है। इसलिए इसका नाम पुनर्नवा है। यह समस्त भारत में 2400 मी की ऊँचाई तक पाया जाता है। पुनर्नवा का प्रयोग चरक में स्वेदोपग रूप में ज्वर-विरेचन में किया गया है। सुश्रुत ने शाकवर्ग में वर्षाभू और पुनर्नवा का उल्लेख किया है। निघण्टु ग्रन्थों में पुनर्नवा को रसायन, मूत्रल, शोथघ्न, स्वेदल, नेत्र्य एवं शोथघ्न रूप में बाह्य प्रयोगार्थ उपयोगी बताया गया है।


 
रक्त पुनर्नवा की मूल श्वेत मूल पुनर्नवा की अपेक्षा कम मोटी, किन्तु लम्बाई में अधिक, बीच से टूट जाने वाली ऊपर की ओर मोटी तथा नीचे की ओर पतली व अनेक उपमूलों से युक्त होती है। मूल को तोड़ने से दूध जैसा गाढ़ा रस निकलता है। मूल स्वाद में कड़वी तथा उग्रगन्धी होती है।

आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव

पुनर्नवा शोथहर, शीतल, हृदयोत्तेजक, शूलहर तथा मूत्रल है। इसका प्रयोग शोथ रोग, हृदय रोग, जलोदर, पांडु और मूत्रकृच्छ्र तथा वृक्क-विकारों में किया जाता है।  इसका विशिष्ट प्रभाव गुर्दों और मूत्रवह संस्थान पर पड़ता है। इसलिए यह मूत्रल और शोथहर है। यह रक्तवहसंस्थान और हृदय पर भी अच्छा असर डालती है।

यह मूत्रल, शोथघ्न, विषघ्न, हृद्य, रसायन दीपन, व्रणरोपक, व्रणशोथपाचन, वृष्य, रक्तभारवर्धक, अनुलोमन, रेचन, कासघ्न, स्वेदजनन, कुष्ठघ्न, ज्वरघ्न तथा मेदोहर है। पोटैशियम नाइट्रेट की उपस्थिति के कारण यह हृदय की मांसपेशियों की संकुचन क्षमता को बढ़ाता है। दूसरी मूत्रल औषधियाँ जहां शरीर में पोटैशियम नाइट्रेट की मात्रा का ह्रास करती हैं, वहीं पुनर्नवा मूत्रल होने के साथ-साथ पोटैशियम प्रदायक है।
 
रक्त पुनर्नवा तिक्त, कटु, शीत, रूक्ष, लघु, कफपित्तशामक, वातकारक, रुचिकारक, अग्निदीपन, ग्राही, शोथघ्न, रसायन, रक्तस्भंक, व्रणरोपण तथा मलसंग्राही होता है।

यह शोफ, पाण्डु, हृद्रोग, क्षत, शूल, रक्तप्रदर, कास, कण्डू, रक्तपित्त, अतिसार, रक्तविकार तथा उदररोग नाशक होता है।

राकेश. पाण्डेय निश्छल

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